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Russia Ukraine Latest News: Diplomatic Analysts Says, Russia Is Pursuing On Its Expansion Policies, In Which Trade Agreements Are The Biggest Challenges – Russia Ukraine Crisis: पांच अरब डॉलर के बदले अमेरिका से यह चाहता था यूक्रेन! क्या साबित होगी जेलेंस्की की अब तक की सबसे बड़ी भूल?

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सार

भारतीय विदेश सेवा से जुड़े पूर्व अधिकारी जयचंद्रन एस कहते हैं कि रूस ने जिस तरीके से आक्रामकता दिखाई है उससे पश्चिमी देश निश्चित तौर पर चिंता में हैं। वह कहते हैं कि दरअसल अब रूस की ओर से यूक्रेन पर किए गए हमले और रूस का आक्रामक रवैया यह इशारा करता है कि संभवतया रूस अपनी विस्तारवादी नीतियों को आगे बढ़ाना चाह रहा है, जिसके जद में यूरोप के कई छोटे-छोटे देश भी आ सकते हैं…

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जिस तरह रूस की तमाम धमकियों के बाद भी यूक्रेन नहीं झुका, उसके पीछे सिर्फ नाटो और अमेरिका समेत यूरोपीय देशों की ताकत ही नहीं बल्कि अमेरिका के बीच होने वाले बड़े व्यापार भी शामिल थे। अमेरिका और यूक्रेन की आर्थिक एजेंसियों के मुताबिक दोनों देशों के बीच तकरीबन पांच अरब डॉलर का सालाना कारोबार है। बस इसी अरबों डॉलर के कारोबार के बदले यूक्रेन को इस बात का अंदाजा था कि अमेरिका अपने हाथ से इतना बड़ा कारोबार नहीं फिसलने देगा और उससे न सिर्फ सैन्य मदद करेगा, बल्कि नाटो की सैन्य शक्तियों की पूरी ताकत भी देगा। राजनीतिक विश्लेषक अब इसको यूक्रेन की सबसे बड़ी कूटनीतिक और व्यापारिक भूल बता रहे हैं।

सालाना पांच अरब डॉलर तक पहुंचा व्यापार

अमेरिकन फोरम ऑफ इकोनॉमिक सर्वे से जुड़े प्रोफेसर श्रीनिवासन कहते हैं कि बीते कुछ सालों में अमेरिका और यूक्रेन के बीच व्यापारिक समझौते के साथ-साथ व्यापार भी बढ़ा। आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका और यूक्रेन के बीच बीते कुछ सालों में व्यापारिक गतिविधियां तकरीबन सालाना पांच अरब डॉलर तक पहुंच गईं। प्रोफेसर श्रीनिवासन कहते हैं कि अमेरिका जैसे बड़े देश के लिए पांच अरब डॉलर का सालाना कारोबार कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन यूक्रेन जैसी अर्थव्यवस्था में खास तौर से यूरोपीय देशों के साथ कारोबार को कम करके अमेरिका के साथ इतना बड़ा व्यापार करना न सिर्फ बड़ी बात थी, बल्कि उसे इस बात का भ्रम भी था कि अमेरिका यूक्रेन को किसी भी बुरे हालात में छोड़ने वाला नहीं है।

यही वजह रही कि जब रूस ने यूक्रेन को धमकाना शुरू किया और अपनी सेनाओं को अलर्ट किया तो बार-बार यूक्रेन और अमेरिका के बीच हुई मदद की बातचीत में एक मुद्दा पांच अरब डॉलर के सालाना व्यापार का भी रहा। इसी के बलबूते यूक्रेन अमेरिका से मदद चाह रहा था, बल्कि अपने देश में अमेरिकी सैनिकों को बड़ी पनाह भी देना चाह रहा था। विदेशी मामलों के जानकारों का मानना है कि अमेरिका इस वक्त 2008 के बाद से आर्थिक मामलों में तंगी झेल रहा है। इसलिए अमेरिका वहां व्यापार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था, लेकिन उसके ऊपर कूटनीतिक दबाव इतना था कि वह यूक्रेन की मदद नहीं कर सका।

रूस पर आर्थिक प्रतिबंध नाकाफी

भारतीय विदेश सेवा से जुड़े पूर्व अधिकारी जयचंद्रन एस कहते हैं कि रूस ने जिस तरीके से आक्रामकता दिखाई है उससे पश्चिमी देश निश्चित तौर पर चिंता में हैं। वह कहते हैं कि दरअसल अब रूस की ओर से यूक्रेन पर किए गए हमले और रूस का आक्रामक रवैया यह इशारा करता है कि संभवतया रूस अपनी विस्तारवादी नीतियों को आगे बढ़ाना चाह रहा है, जिसके जद में यूरोप के कई छोटे-छोटे देश भी आ सकते हैं। विदेशी मामलों के जानकारों का कहना है कि सिर्फ आर्थिक प्रतिबंधों से रूस झुकने वाला नहीं है। उसकी बड़ी वजह बताते हुए जानकार कहते हैं कि रूस के ऊपर निर्भरता सिर्फ यूरोपीय देशों की ही नहीं है बल्कि अमेरिका और कनाडा समेत दुनिया के तमाम सभी बड़े मुल्कों की भी है।

आर्थिक मामलों के जानकार मुकुंद देसाई कहते हैं कि रूस और यूक्रेन के बीच में हो रहे विवाद को खत्म करने के लिए यूरोप के दो बड़े देश फ्रांस और जर्मनी बातचीत के माध्यम से हल निकालने के लिए हर तरह की पैरवी करते रहे। वह कहते हैं कि अमेरिका को इस बात का अंदाजा है कि बहुत ज्यादा आर्थिक प्रतिबंधों से यूरोपीय देशों और अमेरिका के आपसी हितों पर भी बड़ा असर पड़ेगा। यही वजह है कि विदेशी मामलों के जानकार और दुनिया के तमाम आर्थिक विशेषज्ञ इस बात को मानकर चल रहे हैं कि आर्थिक प्रतिबंध का रूस के ऊपर बहुत बड़ा फिलहाल असर नहीं पड़ने वाला है।

अमेरिका की गलत नीतियां जिम्मेदार

यूक्रेन में सीधे तौर पर दखल न देने के लिए अमेरिका की रणनीति को यूरेशिया इकोनॉमिक फोरम के जेएन रेड्डी अलग नजरिए से देखते हैं। वे कहते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े कोई भी मुद्दे यूक्रेन से सीधे तौर पर जुड़े नहीं होते हैं। इसके अलावा यूक्रेन में अमेरिका का न कोई सैन्य ठिकाना है और न ही कोई सीधा और हस्तक्षेप। क्योंकि अफगानिस्तान में अमेरिका ने अपनी गलत नीतियों के कारण न सिर्फ हाथ जलाए हैं बल्कि खुद के देश में भी जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा है। यही वजह है कि 1995 में युगोस्लाविया और 2011 में लीबिया के गृह युद्ध में सीधे दखल देने वाले अमेरिका ने 2022 में हुए यूक्रेन युद्ध में अपने हाथ पीछे खींच लिए। रेड्डी कहते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन मानवाधिकारों के नाम पर एक दौर में बाल्कन और इराक में सैन्य हस्तक्षेप को समर्थन देते थे। लेकिन अफगानिस्तान जैसे हालातों में मात खाने के बाद उनको सोचने पर मजबूर कर दिया।

विस्तार

जिस तरह रूस की तमाम धमकियों के बाद भी यूक्रेन नहीं झुका, उसके पीछे सिर्फ नाटो और अमेरिका समेत यूरोपीय देशों की ताकत ही नहीं बल्कि अमेरिका के बीच होने वाले बड़े व्यापार भी शामिल थे। अमेरिका और यूक्रेन की आर्थिक एजेंसियों के मुताबिक दोनों देशों के बीच तकरीबन पांच अरब डॉलर का सालाना कारोबार है। बस इसी अरबों डॉलर के कारोबार के बदले यूक्रेन को इस बात का अंदाजा था कि अमेरिका अपने हाथ से इतना बड़ा कारोबार नहीं फिसलने देगा और उससे न सिर्फ सैन्य मदद करेगा, बल्कि नाटो की सैन्य शक्तियों की पूरी ताकत भी देगा। राजनीतिक विश्लेषक अब इसको यूक्रेन की सबसे बड़ी कूटनीतिक और व्यापारिक भूल बता रहे हैं।

सालाना पांच अरब डॉलर तक पहुंचा व्यापार

अमेरिकन फोरम ऑफ इकोनॉमिक सर्वे से जुड़े प्रोफेसर श्रीनिवासन कहते हैं कि बीते कुछ सालों में अमेरिका और यूक्रेन के बीच व्यापारिक समझौते के साथ-साथ व्यापार भी बढ़ा। आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका और यूक्रेन के बीच बीते कुछ सालों में व्यापारिक गतिविधियां तकरीबन सालाना पांच अरब डॉलर तक पहुंच गईं। प्रोफेसर श्रीनिवासन कहते हैं कि अमेरिका जैसे बड़े देश के लिए पांच अरब डॉलर का सालाना कारोबार कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन यूक्रेन जैसी अर्थव्यवस्था में खास तौर से यूरोपीय देशों के साथ कारोबार को कम करके अमेरिका के साथ इतना बड़ा व्यापार करना न सिर्फ बड़ी बात थी, बल्कि उसे इस बात का भ्रम भी था कि अमेरिका यूक्रेन को किसी भी बुरे हालात में छोड़ने वाला नहीं है।

यही वजह रही कि जब रूस ने यूक्रेन को धमकाना शुरू किया और अपनी सेनाओं को अलर्ट किया तो बार-बार यूक्रेन और अमेरिका के बीच हुई मदद की बातचीत में एक मुद्दा पांच अरब डॉलर के सालाना व्यापार का भी रहा। इसी के बलबूते यूक्रेन अमेरिका से मदद चाह रहा था, बल्कि अपने देश में अमेरिकी सैनिकों को बड़ी पनाह भी देना चाह रहा था। विदेशी मामलों के जानकारों का मानना है कि अमेरिका इस वक्त 2008 के बाद से आर्थिक मामलों में तंगी झेल रहा है। इसलिए अमेरिका वहां व्यापार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था, लेकिन उसके ऊपर कूटनीतिक दबाव इतना था कि वह यूक्रेन की मदद नहीं कर सका।

रूस पर आर्थिक प्रतिबंध नाकाफी

भारतीय विदेश सेवा से जुड़े पूर्व अधिकारी जयचंद्रन एस कहते हैं कि रूस ने जिस तरीके से आक्रामकता दिखाई है उससे पश्चिमी देश निश्चित तौर पर चिंता में हैं। वह कहते हैं कि दरअसल अब रूस की ओर से यूक्रेन पर किए गए हमले और रूस का आक्रामक रवैया यह इशारा करता है कि संभवतया रूस अपनी विस्तारवादी नीतियों को आगे बढ़ाना चाह रहा है, जिसके जद में यूरोप के कई छोटे-छोटे देश भी आ सकते हैं। विदेशी मामलों के जानकारों का कहना है कि सिर्फ आर्थिक प्रतिबंधों से रूस झुकने वाला नहीं है। उसकी बड़ी वजह बताते हुए जानकार कहते हैं कि रूस के ऊपर निर्भरता सिर्फ यूरोपीय देशों की ही नहीं है बल्कि अमेरिका और कनाडा समेत दुनिया के तमाम सभी बड़े मुल्कों की भी है।

आर्थिक मामलों के जानकार मुकुंद देसाई कहते हैं कि रूस और यूक्रेन के बीच में हो रहे विवाद को खत्म करने के लिए यूरोप के दो बड़े देश फ्रांस और जर्मनी बातचीत के माध्यम से हल निकालने के लिए हर तरह की पैरवी करते रहे। वह कहते हैं कि अमेरिका को इस बात का अंदाजा है कि बहुत ज्यादा आर्थिक प्रतिबंधों से यूरोपीय देशों और अमेरिका के आपसी हितों पर भी बड़ा असर पड़ेगा। यही वजह है कि विदेशी मामलों के जानकार और दुनिया के तमाम आर्थिक विशेषज्ञ इस बात को मानकर चल रहे हैं कि आर्थिक प्रतिबंध का रूस के ऊपर बहुत बड़ा फिलहाल असर नहीं पड़ने वाला है।

अमेरिका की गलत नीतियां जिम्मेदार

यूक्रेन में सीधे तौर पर दखल न देने के लिए अमेरिका की रणनीति को यूरेशिया इकोनॉमिक फोरम के जेएन रेड्डी अलग नजरिए से देखते हैं। वे कहते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े कोई भी मुद्दे यूक्रेन से सीधे तौर पर जुड़े नहीं होते हैं। इसके अलावा यूक्रेन में अमेरिका का न कोई सैन्य ठिकाना है और न ही कोई सीधा और हस्तक्षेप। क्योंकि अफगानिस्तान में अमेरिका ने अपनी गलत नीतियों के कारण न सिर्फ हाथ जलाए हैं बल्कि खुद के देश में भी जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा है। यही वजह है कि 1995 में युगोस्लाविया और 2011 में लीबिया के गृह युद्ध में सीधे दखल देने वाले अमेरिका ने 2022 में हुए यूक्रेन युद्ध में अपने हाथ पीछे खींच लिए। रेड्डी कहते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन मानवाधिकारों के नाम पर एक दौर में बाल्कन और इराक में सैन्य हस्तक्षेप को समर्थन देते थे। लेकिन अफगानिस्तान जैसे हालातों में मात खाने के बाद उनको सोचने पर मजबूर कर दिया।



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