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Ukraine Crisis And Lessons: How Effective Are Sanctions On Russia, Are They Proving To Be Insufficient – यूक्रेन संकट से सबक : रूस पर प्रतिबंध कितने असरदार, क्या साबित हो रहे नाकाफी?

जमीनी धरातल पर प्रतिबंधों के ब्योरे और वास्तविकता में अंतर देखने लायक है। पिछले बृहस्पतिवार को अमेरिकी सरकार ने रूस पर ‘गंभीर प्रतिबंधों’ की पहली कड़ी की घोषणा की। अमेरिका राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की कि उनका उद्देश्य व्लादिमीर पुतिन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खारिज करना है। उनकी इस घोषणा के एक घंटे के भीतर कच्चे तेल की कीमत प्रतिबंध से पूर्व के स्तर से नीचे गिर गई। शेयर बाजार गहरे लाल रंग से चमकीले हरे रंग के क्षेत्र में चले गए। शेयरों में वृद्धि यही बताती है कि रूस को मिला दंड पर्याप्त नहीं है।
एक दिन बाद यूरोपीय संघ ने नए प्रतिबंधों की घोषणा की। रूसी संस्थाओं के वित्तीय प्रवाह को बंद करने, विमान के पुर्जों और महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी तक पहुंच पर प्रतिबंध लगाने के अलावा यूरोपीय संघ के प्रतिबंध पुतिन और रूसी विदेश मंत्री की संपत्ति फ्रीज करना चाहते हैं। कोई नहीं जानता कि उनके पास रूस से बाहर संपत्ति है या नहीं। सच यही है कि प्रतिबंध बेलारूस के एलेक्जेंडर लुकाशेंकों और सीरिया के बसर अल असद को भी तानाशाही तौर-तरीकों से नहीं रोक पाए।
रूस पर प्रतिबंधों को लेकर यूरोपीय संघ के भीतर जो तथाकथित सर्वसम्मति बनी, उसमें भी सब एकमत नहीं थे। व्यापक रूप से माना गया कि रूस को वैश्विक वित्तीय प्रणाली स्विफ्ट (सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशन) बैंकिंग प्रणाली से बाहर करना कठिन है। ब्रिटेन स्विफ्ट से रूस को बाहर करना चाहता था। अमेरिका ने इस पर हिचकिचाहट दिखाई, जबकि जर्मनी और हंगरी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
आखिरकार यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, अमेरिका और उसके सहयोगी देशों एवं साझेदारों ने स्विफ्ट से चुनिंदा रूसी बैंकों को अलग करने और रूस के केंद्रीय बैंक के खिलाफ प्रतिबंधात्मक कदम उठाने का फैसला किया है। इटली ने विलासिता की इतालवी वस्तुओं को प्रतिबंध के दायरे से बाहर निकाला और बेल्जियम ने हीरे के व्यापार को प्रतिबंध पैकेज से बाहर रखने के लिए कड़ा संघर्ष किया।
यूरोपीय दोहरापन साफ है-रूसी कुलीन वर्गों के लिए विलासिता की महंगी वस्तुओं को खरीद पाने की आजादी आक्रमण झेल रहे एक संप्रभु राष्ट्र के लोगों की स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है। जाहिर है कि यूक्रेन से आने वाली तस्वीरों को देख यूरोप ने यह महसूस किया कि नाटो सहयोगियों में से भी किसी देश का यह हश्र हो सकता है, लिहाजा पुतिन की आक्रामकता को यूक्रेन की सीमाओं पर नहीं रोका जा सकता।
यूरोप में रूस के बहुपक्षीय व्यापार और सुरक्षा व्यवस्था को खत्म कर ही पुतिन को सबक सिखाया जा सकता है। क्या अमेरिका और उसके सहयोगी देश पुतिन को रोक पाएंगे? प्रतिबंध सैद्धांतिक रूप से काम कर सकते हैं, पर इतिहास बताता है कि इसका असर सबसे धीमा है। जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा किया था, तब अमेरिका और उसके सहयोगियों ने उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे।
तब रूस ने अपने लोक वित्त को डॉलर से अलग किया, अब रूस पर जीडीपी अनुपात में सबसे कम कर्ज है और उसका भंडार 650 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। साथ ही, उसने सीरिया में असद के शासन को बनाए रखा है, क्रीमिया पर रूस का कब्जा बना हुआ है और अब यूक्रेन के सामने ‘असैन्यीकरण’ का खतरा है। इस हफ्ते चीन ने इन प्रतिबंधों को ‘अप्रभावी’ बताकर खारिज कर दिया।
इसकी वजह है-1989 में तियानमेन चौराहे के विरोध के बाद यूरोपीय संघ और अमेरिका ने उस पर प्रतिबंध लगाए थे। उनका उद्देश्य चीन को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाना था। पर उसके बाद बीजिंग ने हांगकांग में लोकतंत्र को खत्म कर दिया, भारत के साथ वह अकारण सीमा युद्ध छेड़े हुए है, और ताइवान पर कब्जा करने की महत्वाकांक्षा उसने जताई है। ऐसे में, अमेरिकी अधिकारियों ने चीन से यूक्रेन में युद्ध रोकने की जो गुहार लगाई, उसे विडंबना ही कहेंगे।
यूरोपीय संघ के 10 सदस्य ऊर्जा के लिए रूस पर निर्भर हैं। अगर रूस द्वारा क्रीमिया पर कब्जा करने के समय जर्मनी ने रूस से अपने ऊर्जा समझौते की समीक्षा की होती, तो क्या आज वह रूस पर इतना निर्भर होता? क्या यूरोप अपने ऊर्जा ग्रिड को आत्मनिर्भर बनने के लिए तैयार नहीं कर सकता था? द वर्ल्ड फॉर सेल के लेखक जेवियर ब्लास कहते हैं, ‘जब से लड़ाई शुरू हुई, रूस की गैस की बिक्री रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है।’
दशकों से अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अपनी ऐच्छिक सोच को ही रणनीति के रूप में पेश किया है। अमेरिका और नाटो सहयोगियों को उम्मीद थी कि शीतयुद्ध के बाद रूस शांतिपूर्ण और समृद्ध यूरोप के विचारों को आत्मसात करेगा। ऐसे ही निक्सन प्रशासन ने चीन से दोस्ती में निवेश किया। फिर उनकी सरकार ने इस उम्मीद में विश्व व्यापार संगठन में चीन के प्रवेश का समर्थन किया कि एक दिन चीन मुख्यधारा के लोकतंत्रों में शामिल हो जाएगा।
जो सवाल पश्चिम और नियम आधारित विश्व व्यवस्था को परेशान करना चाहिए, वह यह कि जब चीन जिनपिंग के अनुसार ताइवान को ‘फिर से अपने साथ जोड़ने की तरफ बढ़ता है, तब उसके पास क्या विकल्प हैं? तब क्या अमेरिका और उसके सहयोगी प्रतिबंधों को निवारक के रूप में देख सकते हैं? जिस सवाल का उत्तर तलाशा जाना चाहिए, वह यह है कि क्या संयुक्त राष्ट्र अपने मौजूदा ढांचे में संप्रभुता और नियम आधरित विश्व व्यवस्था को संरक्षित कर पाता है? क्या पश्चिम सुरक्षा परिषद के और अधिक प्रतिनिधित्वशाली होने पर सहमत हो सकता है? कहा जाता है कि दशकों तक कुछ नहीं होता और फिर कुछ ही हफ्तों में दशकों का काम हो जाता है। इतिहास का अंत इतिहास की शुरुआत भी है।